गीत चतुर्वेदी ने भाषा की राजनीति पर एक जबरदस्त लेख लिखा है। इधर एक नई अंग्रेजी पत्रिका Covert में भी मशहूर बवालिया लेखक खुशवंत सिंह ने उर्दू की हालत को इतनी गहराई से बयां किया है कि उसे पेश करने से खुद को नहीं रोक पा रहा। हो सकता है इससे पत्रिका के कॉपीराइट का उल्लंघन हो। लेकिन कॉपीराइट जाए भाड़ में। हमें तो सच जानने का हक है और इस पत्रिका ने आज छपे अपने विज्ञापन में लिखा भी है - We hope to tease the truth out of the wrinkles of secrecy and restore the breath of life to news. तो पढ़िए उर्दू के हाल पर खुशवंत सिंह क्या कहते हैं....
उर्दू का मुकद्दर दो पड़ोसी मुल्कों में एक के बाद एक, दो दिनों में तय किया गया। 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में, जब इसने खुद को एक संप्रभु, स्वतंत्र मुस्लिम गणतंत्र घोषित कर दिया। अगले दिन 15 अगस्त को भारत में, जब इसने खुद को एक संप्रभु, पंथ-निरपेक्ष (और बाद में समाजवादी) राष्ट्र घोषित किया। पाकिस्तान ने उर्दू को तमाम इलाकों में बोली जानेवाली भाषाओं – पंजाबी, पश्तो, बलूच, सरायकी और सिंधी से ऊपर अपनी राष्ट्रीय भाषा के बतौर स्वीकार किया। भारत ने क्षेत्रीय भाषाओं को हिंदी के बराबर का ओहदा देते हुए हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के बतौर अपनाया।
उर्दू को भी भारत में एक ओहदा दिया गया, लेकिन अपना कहने को इसका कोई इलाका नहीं था। नतीजा दूरगामी रहा। पाकिस्तान उर्दू को अपनी राष्ट्रीय भाषा बनाने में कामयाब रहा और अंग्रेज़ी को दोयम दर्जे पर धकेल दिया। भारत हिंदी को अपनी राष्ट्रीय भाषा बनाने में नाकाम रहा क्योंकि क्षेत्रीय भाषाओं ने अपने-अपने इलाकों में दबदबा और दावा बनाए रखा। हिंदी बहुत हद तक उत्तरी राज्यों तक सिमट गई और अंग्रेज़ी ने संपर्क भाषा के रूप में वर्चस्व बनाए रखा। प्रिंट मीडिया में तो अंग्रेज़ी की ही बल्ले-बल्ले होती रही। उर्दू धीरे-धीरे चलन से बाहर होती गई और अब धीमी मौत मर रही है। लेकिन गौर करने की बात ये है कि उर्दू नहीं मर रही, बल्कि वो अरबी लिपि मर रही है जिसमें यह लिखी जाती है दाएं से बाएं। राशिद का एक शेर अर्ज है...
खुदा से मेरी सिर्फ एक ही है दुआ
गर मैं वसीयत लिखूं उर्दू में, बेटा पढ़ पाए
किसी भी भाषा के सबसे बड़े दुश्मन वो भाषाई कठमुल्ले हैं जो अपनी वर्णमाला को सुधारने या दूसरी भाषाओं के शब्दों को स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं। आज हमारी किसी भी भाषा में कॉमा, कॉलन, सेमी-कॉलन, इनवर्टेड कॉमा या प्रश्नवाचक चिन्हों जैसे पंक्चुएशन मार्क का इस्तेमाल नहीं होता। हिंदू कठमुल्ले स्कूल और कॉलेजों में उर्दू कविता को लेने नहीं देते। वे यह मानने से इनकार कर देते हैं कि उर्दू को बहुत अच्छे तरीके से दूसरी भारतीय लिपियों में प्रस्तुत किया जा सकता है। अपनी बात करूं तो मैं ग़ालिब और दूसरे उर्दू शायरों को उर्दू, हिंदी और गुरुमुखी में पढ़ता हूं। और उनका आनंद उठाता हूं।
लेकिन विलुप्त होने की डगर पर बढ़ने के बावजूद उर्दू ने अपना वजूद बनाए रखा है, चाहे वह बॉलीवुड की फिल्मों के गानों में हो या संसद की बहसों में सबसे ज्यादा उद्धृत की जानेवाली भाषा के रूप में। फिल्मी गानों ने इसके सबसे खूबसूरत शब्दों और अंदाज-ए-बयां को बनाए रखा है और बाज़ार से लेकर घरों तक आसान हिंदी या कहें तो हिंदुस्तानी के रूप में पहुंचा दिया है। यहां तक कि दक्षिण भारत में भी इस तरह उर्दू पहुंच रही है। अंत में, उर्दू के हश्र को बयां करने के लिए ये दो लाइनें काफी हैं –
उर्दू क्या है? एक कोठे की तवायफ है।
मज़ा सब कोई लेता है, मोहब्बत कोई नहीं करता।।
मतदाता जागरूकता गीत
4 weeks ago
13 comments:
आप ने किसी कॉपीराइट का कोई उल्लंघन नहीं किया है। आप ने किसी लेख के अंशों का प्रयोग अपनी बात को कहने के लिए किया है जो उचित है, और कॉपीराइट का उल्लंघन नहीं है।
आप ने सही बात पकड़ी है। मेरे विचार से तो हिन्दी उर्दू दो भाषाएं हैं ही नहीं। एक ही भाषा के दो रूप हैं। इन में जो भिन्नता है वह इस की लिपि के प्रयोग के कारण और शब्दों के परहेज से उत्पन्न हुई है। लिपि से कोई फर्क नहीं पड़ता अगर हिन्दी या उर्दू रोमन में लिखी जाती है तो उस से भाषा पर कोई फर्क नहीं पड़ता। हम दोनों भाषाओं के शब्दकोषों को एक कर दें तो विश्व की कोई भी भाषा इस से बेहतर न हो पाएगी। वैसे लिप्यांतरण के जो प्रयास किये जा रहे हैं वे इस दीवार को तो गिराने ही वाले हैं।
कभी उर्दू सिखना शुरू किया था ,आप की पोस्ट ने फिर से प्रेरित कर दिया ,मै तो यही कहूगीं
उर्दू कोठे की तवायफ नहीं मन्दिर मे स्थापित देवी है...
बहुत इच्छा है उर्दु सीखने की. मजा आयेगा.
शुक्रिया इस आलेख के अंश यहाँ छापने के लिए। मुझे लगता है कि उर्दू की स्थिति में सुधार सरकार लाए ना लाए अपनी हिंदुस्तानी संस्कृति से प्रेम करने वाले जरूर लाएँगे।
इस लेख को प्रस्तुत करआपने एक बार फिर उर्दूकी तरफ ध्यान खींचा है । मेरी एक पाकिस्तानी दोस्त अक्सर कहा करती थी तुम लता मंगेशकर की तरह उर्दू बोलती हो । शायद मेरे मराठी लहजे की वजह से । मेरे तईं तो मै हिंदी ही बोलती थी । उसके कहने का मतलब अब समझ में आया । पर क्या आप लोगों ने पाकिस्तानी खबरें सुनी हैं वे तो बिलकुल समज में नही आतीं आधे से ज्यादी अरबी शब्द होते हैं उसमे ।
किसी भी भाषा के सबसे बड़े दुश्मन वो भाषाई कठमुल्ले हैं जो अपनी वर्णमाला को सुधारने या दूसरी भाषाओं के शब्दों को स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं।
aapki bat se sahmat hun bhasha sudh karne ke chkkr me to khatm hone ke aasar badh jate hain
आप भी मेस्मराइज हो गये खुशवन्त जी से। हमें तो न जमते अब!
बिल्कुल सही लिखा आपने...बधाई..
really informative, so many people use urdu words but didn't know about the reality which is u write in ur blog.
अनिल जी,
विषय चुनने में आपका कोई सानी नहीं.
ये बेबाकपन और भाषा का ये बांकपन !
इसे सिर्फ़ कमाल कहना भी
मुनासिब जान नहीं पड़ता.
सूचना....सन्दर्भ.....समझ....बहस....
और भी बहुत कुछ.
इसे मैं रघुराजपन मानता हूँ.
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शुक्रिया इस पोस्ट के लिए भी.
आपकी हर पोस्ट पढ़ता हूँ.
डा.चंद्रकुमार जैन
गीत चतुर्वेदी का लेख भी पढ लिया और आपकी पोस्ट भी... सममुच बहुत गंभीर मसला उठाया है आप लोगों ने... मैंने अपने ही परिवार में देखा है... उर्दू बोलने की कोशिश करो, तो पापा, मामा घुडक देते थे...
अनिल सिंह जी उर्दू के बारे में जानने की बहुत इच्छा थी और सीखना भी चाहा किन्तु सीख नही पाये...उर्दू बेहद सलीकेदार और अदब की भाषा है...हम चाहेंगे आप कोई एसा भी लिंक दें जहाँ से हम उर्दू सीख भी पायें...बोलना न सही लिखना समझ पायें...
कन्वर्ट मेगज़ीन भी अच्छी लगी...
बड़ी ही विचित्र बात है कि लोग उर्दू सीखना चाहते हैं लेकिन जब लिपि के चक्कर में आएंगे तो लगेगा कि फंस गए। वस्तुतः उर्दू और अरबी की वर्णमाला में दस अक्षरों का अंतर है,अरबी में दस अक्षर कम हैं। उर्दू की लिपि में मात्राएं यानि ज़ेर-ज़बर आदि लगाना सामान्यतः प्रचलन में नहीं है तो यदि लिखा है : अलिफ़ + रे + दाल + वाओ = उर्दू लेकिन आप यदि इस भाषा में अंदाज के घटक से परिचित नहीं हैं तो आप "उर्दू" शब्द को क्या-क्या पढ़ सकते हैं जरा देखिये- अरदु,अरदू,उरदु,अर्दु,अर्दू,इर्दू,अरदो,उरदो,उर्दो,अरदव,इरदव,उरदव,उर्दव,अर्दव....और न जाने क्या-क्या... आप पागल होते होते बचेंगे,यदि लिपि देवनागरी हो तो बिलकुल सही है और जो लोग ये दावा करते हैं कि हलक से निकलने वाले "हे"का हिन्दी बोलने वाले उच्चारण नहीं कर पाते उन्हें शायद विसर्ग(:) के बारे में पता ही नहीं होता। भाषा अतिसुन्दर है किन्तु लिपि अपूर्ण है.....
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