Friday 21 December, 2007

न होता मैं तो क्या होता? कुछ नहीं होता...

इधर काफी दिनों से मन एकदम बुझा-बुझा हुआ है। न कुछ लिखने का दिल करता है, न पढ़ने का। सिर को जब तक हाथ से पकड़े रहो, तभी तक सीधा रहता है। टेक हटते ही मुर्दे के सिर की मानिंद इधर-उधर लुढ़क जाता है। ऐसा नहीं कि दिमाग में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, विचार और भाव नहीं आते, लेकिन वे इस तरह डूब जाते हैं जैसे उस कहानी में गन्ने के रस में पूड़ियां डूब जाती थीं। हुआ यह कि दो यादव भाई जबरदस्त भोजनभट्ट थे। बड़ा भाई शादीशुदा था, जबकि छोटे के लिए अभी देख-नहरू चक्कर लगा रहे थे। बड़ा भाई ससुराल गया तो छोटा भी पीछे लग गया। ससुराल वाले उनके खाने की ख्याति से भलीभांति वाकिफ थे।

अभी की तरह यही कोई दिसंबर-जनवरी का महीना था। गन्ना कटकर घरों में आने लगा था। तो, घर में भीतर-बाहर बात करने के बाद ससुराल वालों ने तय किया कि पहले दोनों भाइयों को जमकर गन्ने का रस पिलाया जाएगा और उसके बाद पूड़ी वगैरह खिलाई जाएगी। गन्ने के रस से पेट भर जाता है तो दोनों भाई पूड़ी ज्यादा नहीं खा पाएंगे। गन्ने का रस पेश किया गया तो दोनों भाई कई बाल्टी रस डकार गए। फिर खाने बैठे। पूड़ियां आती गईं, दोनों निगलते गए। करीब सौ पूड़िया खाने के बाद छोटा भाई बड़े भाई से बोला – ये भइया, पूड़िया तो रसवा में डब-डब डूबत चलि जाति हा। तो इसी तरह विचार मन की अतल गहराइयों में डब-डब करके डूबते जा रहे हैं। कोई छोर दिखता है तो पकड़ने की कोशिश करते ही सतह के नीचे सरक जाता है।

जेहन में अनावश्यक और निरर्थक हो जाने का भाव गहरा हो जाता है। सोचता हूं इस ढीलेपन और पस्ती की वजह क्या है? मन की चादर गुड़ीमुड़ी क्यों हो गई है? अलगनी से कपड़ा उड़कर नीचे क्यों गिर गया? सीधी-सी बात है कि क्लिप नहीं लगाओगे तो हवा का ज़रा-सा झोंका भी कपड़े को उड़ा ले जाएगा। सामाजिक रिश्तों ने चादर को तानकर नहीं रखा तो वह गुड़ीमुड़ी हो ही जाएगी। खुद को redundant महसूस करने का आधार यही है। जब तक उत्पादन के रिश्ते और रिश्तों की डोर आपको ताने रहती है तब तक निरर्थकता के बोध को आने का मौका ही नहीं मिलता। लेकिन जैसे ही काम का अभाव और आसपास की दुनिया की खिलंदड़ी से आपका साबका पड़ता है, सब कुछ निरर्थक लगने लगता है। पूरा वजूद सौ साल के बूढ़े के चेहरे की झुर्रियों की तरह नीचे लटक जाता है। और आप सोचने लगते हैं कि मेरे होने या न होने से किसी को क्या फर्क पड़ता है!! फिर यही भाव किसी दिन आपको अवसाद और आत्महंता मानसिकता के गर्त में खींच ले जाता है।

ध्यान दें कि शहरों में बूढ़े या नौजवान व्यक्तिगत निरर्थकता के अहसास में खुदकुशी करते हैं, जबकि महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश या बुंदेलखंड का किसान अपने सामाजिक-आर्थिक वजूद और साख के खतरे में पड़ जाने के चलते खुदकुशी करता है। बिजनेसमैन घाटे में फंसकर दिवालियेपन की कगार पर पहुंचकर अपनी जान लेता है। लेकिन आईआईटी का छात्र निरर्थकता के बोध में डूबकर अपनी जान लेता है। आज सामाजिक तानेबाने के ढीले पड़ने और कायदे का मनमाफिक काम न मिल पाने की वजह से देश के लाखों लोग खुद को फालतू महसूस करने लगे हैं। उनके लिए जीवन और मौत के बीच बेहद पतली रेखा खिंची हुई है, जिसे वो हमेशा पार करने को बेताब रहते हैं।

जब तक हम लोगों को यह अहसास नहीं कराते कि जो भी इस देश, दुनिया, समाज में पैदा हुआ है, वह वेशकीमती है, उसकी उपयोगिता है, तब तक हम उनकी अवसादग्रस्त मानसिकता को दूर नहीं कर सकते। सिर्फ सड़कों, पुलों और बिजलीघरों के बनाने से देश नहीं बना करते। राष्ट्र-निर्माण के लिए लोगों के मन को सुंदर भविष्य से बांधना भी एक बुनियादी शर्त है। नहीं तो बहुतेरे दफ्तर और घर निरर्थकता के बोध से घिरे लोगों की कब्रगाह बनने को तैयार बैठे हैं।
फोटो सौजन्य : mike _1360

6 comments:

दिलीप मंडल said...

अनिल जी, आपने एक बड़ी समस्या की भयावहता को दिखाया है। आप की ओर तो हम रास्ते की तलाश में देखते हैं। आपके चिंतन से जरूर कोई रास्ता निकलेगा। उम्मीद है आप आगे भी उसे शेयर करेंगे।

Gyan Dutt Pandey said...

यह ब्लॉगरी तो मेरे लिये निरर्थकता मेँ अर्थ ढूँढने की कवायद है। जो भी विषय मन में हल्का भी कौंधे उसपर थ्रू एण्ड थ्रू सोच कर 200-300 शब्द का पठनीय लिखना ध्येय रहता है। देर सबेर अवसाद जायेगा ही। अवसाद वैक्यूम ढूंढता है अपने अड्डे के लिये। उसे वैक्यूम नहीं मिलना चाहिये।

बालकिशन said...

"जब तक उत्पादन के रिश्ते और रिश्तों की डोर आपको ताने रहती है तब तक निरर्थकता के बोध को आने का मौका ही नहीं मिलता। लेकिन जैसे ही काम का अभाव और आसपास की दुनिया की खिलंदड़ी से आपका साबका पड़ता है, सब कुछ निरर्थक लगने लगता है।"
"सिर्फ सड़कों, पुलों और बिजलीघरों के बनाने से देश नहीं बना करते। राष्ट्र-निर्माण के लिए लोगों के मन को सुंदर भविष्य से बांधना भी एक बुनियादी शर्त है। नहीं तो बहुतेरे दफ्तर और घर निरर्थकता के बोध से घिरे लोगों की कब्रगाह बनने को तैयार बैठे हैं।"

इससे बचने का एक ही रास्ता है जो मैं प्रायः इस्तेमाल करता हूँ. शायद आपके भी काम आए.
"अजगर करे न चाकरी पंक्षी करे न काम
दास मलूका कह गए सबके दाता राम."

Srijan Shilpi said...

क्या सपने नहीं देखते? सपने वे नहीं होते जो हम सोते समय देखते हैं। सपने वे होते हैं जो हमें सोने नहीं देते।

सपने सृजन के लिए प्रेरित करते हैं। सृजन हमारा स्वभाव बन जाए। किसी मकसद के लिए नहीं, कुछ पाने के लिए नहीं। जैसे प्रकृति करती है।

प्रकृति को कभी अपनी निरर्थकता का बोध नहीं होता। निर्जन एकांत में भी प्रकृति उसी उल्लास और तन्मयता से निरंतर सृजन रत रहती है।

जो सृजनशील होते हैं, उन्हें सबकुछ सुन्दर और सार्थक लगता है। सृजनशीलता आत्मा के विस्तार का माध्यम है।

यदि ऐसा लगता है कि सृजन के अनुकूल माहौल या मन:स्थिति अभी नहीं है तो जो ध्वंस के लायक है उसे तोड़ने में ऊर्जा लगा दीजिए।

यदि सृजन या ध्वंस, दोनों में ही दिलचस्पी नहीं बची है तब आप बिल्कुल उस मुकाम पर हैं, जहां से मौन, शून्य और शांति का द्वार खुलता है।

अवसाद और निरर्थकता बोध की तो गुंजाइश ही नहीं होनी चाहिए।

मीनाक्षी said...

बहुत दिनों के बाद हम फिर से उतरे ब्लॉगजगत के सागर में... कभी कभी ऐसा अनुभव होता है ... भाव विचार सब जैसे बर्फ की सिल में बद्ल जाते हैं, कलम की नोक से लाख कुरेदने पर कण कण से शब्द दूर दूर छिटक जाते हैं, पिघल जाते हैं, गुम हो जाते हैं लेकिन चाहें तो हम खुद ही इस घेरे से निकल सकते हैं. पढ़कर चिंतन करने को विवश करता है आपका लेखन.

Tamasha-E-Zindagi said...

सार्थक और विचारणीय लेख | बधाई |


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