Monday 6 August, 2007

सच का झूठ, शब्दों की किलेबंदी

वैकल्पिक मीडिया के जानेमाने पैरोकार और वरिष्ठ ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार जॉन पिलगर ने इसी साल 16 जून को शिकागो में एक सम्मेलन के दौरान कुछ बातें कही थीं। हालांकि ये बातें विकसित देशों और खासकर अमेरिका के संदर्भ में हैं, लेकिन मेरे ख्याल से हमारे लिए भी इनमें काफी कुछ महत्वपूर्ण हैं। पेश है उनके भाषण के चुनिंदा अंश...
करीब अस्सी साल पहले की बात है। कॉरपोरेट पत्रकारिता की शुरुआत को ज्यादा वक्त नहीं हुआ था। उसी दौरान पीआर (पब्लिक रिलेशंस) के पितामह कहे जानेवाले एडवर्ड बरनेज़ ने पत्रकारिता और मीडिया को देश पर शासन करनेवाली अदृश्य सरकार करार दिया था। उस दौर की शुरुआत कॉरपोरेट विज्ञापनों के आने के साथ हुई थी। बड़े कॉरपोरेशन प्रेस पर कब्जा कर रहे थे। तभी ‘प्रोफेशनल पत्रकारिता’ की धारणा कहीं से खोजकर उछाली गई। बड़े विज्ञापनदाताओं को आकर्षित करने के लिए कॉरपोरेट प्रेस के लिए सम्मानजनक, व्यवस्था के स्तंभ, वस्तुनिष्ठ, निरपेक्ष और संतुलित दिखना ज़रूरी था। पत्रकारिता की पहली धारा शुरू हुई और प्रोफेशनल पत्रकार के इर्दगिर्द उदार निरपेक्षता का मिथक बुना गया। तब से इस अदृश्य सरकार की ताकत बढ़ती ही चली गई।
1983 में दुनिया के मीडिया पर मोटे तौर पर 50 कॉरपोरेशंस का कब्जा था, जिनमें से ज्यादातर अमेरिकी थे। 2002 में ये साम्राज्य नौ कॉरपोरेशंस के हाथ में आ गया। और, ये संख्या आज शायद पांच तक आ गई है। मीडिया सम्राट रूपर्ट मरडोक का अनुमान है कि दुनिया में जल्दी ही तीन बड़े मीडिया समूह रह जाएंगे, जिनमें से उनका भी समूह शामिल होगा। मीडिया की ताकत केंद्रित होती जा रही है। बीबीसी ने घोषणा की है कि वह अपनी ब्रॉ़डकास्टिंग सेवाएं अमेरिका तक फैलाने जा रहा है क्योंकि उसका मानना है कि अमेरिकी लोग संयत, वस्तुनिष्ठ, निरपेक्ष पत्रकारिता चाहते हैं और इन्हीं के लिए बीबीसी को जाना जाता है।
आपको बता दें कि अमेरिका में कॉरपोरेट प्रेस के शुरू होने के ठीक पहले 1922 में बीबीसी की शुरुआत की गई थी। और शुरुआत के पहले ही साल में इसकी निरपेक्षता की कलई उतर गई थी।
अभी पिछले ही साल साहित्य का नोबेल पुरस्कार लेते वक्त नाटककार हैरोल्ड पिंटर ने युगांतकारी भाषण दिया था। उन्होंने कहा था, ‘स्टालिनवादी रूस में व्यवस्था की निर्ममता, व्यापक अत्याचार, स्वतंत्र विचार के घोर दमन से तो हम सभी वाकिफ हैं, जबकि अमेरिकी सरकार के अपराधों को बेहद सतही तौर पर दर्ज किया जाता है। इस समय दुनिया भर में अनगिनत लोग अमेरिकी सत्ता का शिकार हो रहे हैं। लेकिन ऐसा दिखाया जाता है जैसे कहीं कुछ हो ही नहीं हो रहा है। इसमें किसी की दिलचस्पी नहीं है। क्यों?’ बीबीसी ने अपने ही देश के इस सर्वाधिक प्रसिद्ध नाटककार के भाषण को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया था।
तो ये है उदार प्रेस और उदारवाद का चेहरा। मैं उदारवाद की खूबियों से इनकार नहीं करता। लेकिन अगर हम इसके खतरे को नज़रअंदाज़ कर दें, प्रोपैंगैंडा की इसकी ताकत को झुठला दें तो हम सच्चे लोकतंत्र के अपने हक को झुठला देंगे क्योंकि उदारवाद और सच्चा लोकतंत्र एक चीज नहीं है। उदारवाद की शुरुआत 19वीं सदी में संभ्रांत वर्ग की सहूलियत के लिए हुई थी और संभ्रांत वर्ग कभी भी सच्चे लोकतंत्र का दान नहीं देता। इसे हमेशा लड़कर हासिल किया जाता है, इसके लिए संघर्ष करना पड़ता है। हमें इस विश्वास के ट्रैप में कभी नहीं आना चाहिए कि मीडिया पब्लिक की बात करता है। आयरलैंड के जानेमाने पत्रकार क्लाउड क्योबर्न ने ठीक ही कहा है, “किसी खबर पर तब तक कभी विश्वास मत करो जब तक आधिकारिक रूप से उसका खंडन न आ जाए।”
पत्रकारों को सच का एजेंट होना पड़ेगा, न कि सत्ता का दरबारी। मैं मानता हूं कि पांचवां स्तंभ संभव है। यह उस जनांदोलन का नतीजा होगा जो कॉरपोरेट मीडिया के प्रचार पर नज़र रखे, उसके झूठ को बेनकाब करे। हर विश्वविद्यालय में, हर मीडिया संस्थान में, हर न्यूज़ रूम में, पत्रकारिता के अध्यापकों को, खुद पत्रकारों को अपने से सवाल पूछना होगा कि बोगस वस्तुपरकता के नाम हो रहे खूनखराबे में उनकी क्या भूमिका है। मीडिया के भीतर इस तरह का आंदोलन ऐसी पेरेस्त्रोइका को जन्म दे सकता है, जिसे हम अभी तक नहीं जानते। ये सब कुछ संभव है। चुप्पी को तोड़ा जा सकता है।
हमें जल्दी करना होगा। उदार लोकतंत्र कॉरपोरेट डिक्टेटरशिप की तरफ बढ़ रहा है। ये एक ऐतिहासिक मोड़ है और मीडिया को इसकी चमक-दमक का शिकार नहीं बनना चाहिए। महान व्हिसल-ब्लोअर टॉम पैन के शब्दों में, अगर बहुसंख्यक लोगों को सच और सच के विचार से ही महरूम रखा जा रहा हो, तब समझ लेना चाहिए कि शब्दों की किलेबंदी को तोड़ने का वक्त आ गया है।

2 comments:

Anonymous said...
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परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सटीक लिखा है।काफि जानकारी मिली।धन्य्वाद।