Sunday 8 July, 2007

कितने कच्चे हैं खून के रिश्ते

असल में सबीना मतीन से बारह साल तीन महीने बड़ी है। वह अब्बू और अम्मी की पहली संतान है, जबकि मतीन को पेट-पोंछन कहा जाता था क्योंकि वह अपने मां-बाप की पांचवीं और अंतिम संतान है। अम्मी और सबीना दोनों ही उसे छुटपन से बेहद प्यार करती थीं। लेकिन सबीना ने बकइयां-बकइयां चलने से लेकर उसे अपने पैरों पर दौड़ना तक सिखाया है। ककहरा सिखाया, दुनिया-जहान का ज्ञान कराया। अब्बू को अपने संगीत कार्यक्रमों, देश-विदेश के दौरों और रियाज़ से कभी फुरसत ही नहीं मिली कि नन्हें (मतीन) के सिर पर हाथ फेरते। यहीं से कुछ ऐसी अमिट दूरी बन गयी कि मतीन अब्बू की बातों को सिर्फ चुपचाप सुनता था, लेकिन हमेशा उनकी बातों का ठीक उल्टा करता था। संगीत न सीखना इसकी एक छोटी-सी मिसाल है। अब्बू कहते रहे, लेकिन उसने कभी भी संगीत की तरफ हल्का-सा भी रुझान नहीं दिखाया। दूसरी तरफ अम्मी और सबीना की हर बात का पलटकर जवाब देना मतीन की जैसे आदत बन गयी। लेकिन आज सबीना की बात का उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। इसलिए उसने मुद्दे से हटे बगैर बात को हल्का करने की कोशिश की।
- एक खुदा से मेरी सांस घुटती है। न उसकी कोई सूरत है, न कोई मूरत। लेकिन यहां तो कहीं श्रीकृष्ण है, कहीं शंकर तो कहीं गदाधारी हनुमान। पूरे तैंतीस करोड़ देवता हैं। जिसको मन चाहे, अपना हमनवां बना लो, सहारा बना लो। ऊपर से चाहो तो और देवता भी गढ़ सकते हो।
- बरखुरदार, तुम भगवान का सहारा खोजने निकले हो या फैशन स्ट्रीट या मॉल में शर्ट खरीदने। खुद को और अपने सवालों को समझने की कोशिश करो। तुम्हारी समस्याएं नई हैं। इनका समाधान पीछे की सोच या दर्शन में कैसे हो सकता है। अगर राह चलते तुम्हारी कोई चीज खो गई तो तुम उसे पीछे लौटकर ढूंढ सकते हो। लेकिन तुम्हारा तो कुछ भी खोया नहीं है, बल्कि तुमने बहुत कुछ नया देखा और पाया है। तुम्हें नई उलझनों के तार सुलझाने हैं। आखिर क्यों पुराने रास्ते पर लौटकर इन्हें और उलझाना चाहते हो?
सबीना उस दिन सुबह से लेकर देर रात तक मतीन को तरह-तरह से समझाती रही। कभी प्यार से तो कभी गुस्से से। हालांकि उसका गुस्सा ज्यादातर बनावटी था। आखिर में उसने दो-टूक फैसला सुना दिया।
- तुम जाकर अब सो जाओ। कल भोर में मैं बाहर जा रही हूं। मतीन शेख बनकर रहे तो लौटकर आने पर मिलूंगी और जतिन गांधी बनने की जिद पर कायम रहे तो खुदा-हाफिज़। बस, उसके बाद समझना कि सारे रिश्ते खत्म। फिर मिलने भी कभी मत आना।
मतीन के सीने से एक हूक निकलकर गले से बाहर निकलने को हुई। आंखों के आंसू पलकों में पसीज आए। सबीना उठकर चली गई। लेकिन मतीन वहीं होंठ भींचकर भीतर ही भीतर कई घंटों तक बिलखता रहा।
मन में तरह-तरह के भाव, तरह-तरह की इमोशन का रंदा चल रहा था। मतीन कहीं अंदर से टूटने लगा।
- मेरी बहन तक मुझे नहीं समझ रही। जिसने मुझे गोंदी में खिलाया, उंगली पकड़कर चलना सिखाया, जिसकी बातों और किताबों ने मेरा नज़रिया बनाया, वही बहन आज मुझसे कभी न मिलने की बात कह रही है। सिर्फ इसलिए कि मैंने उसके मजहब को छोड़कर अलग मजहब अपनाने का फैसला कर लिया? क्या सचमुच खून के रिश्ते कच्चे इतने होते हैं, उनमें इतना बेगानापन छिपा होता है? लेकिन पहले तो ऐसा नहीं था।
मतीन को याद आया, तकरीबन पांच साल पहले का वो दिन, जब वह लंदन से रातोंरात फ्लाइट पकड़कर दिल्ली पहुंचा था। दोस्त का फोन आया था कि बहन अस्तपाल में उसका हाथ पकड़कर रोई थी कि किसी तरह नन्हें को बुला दो, मैं अब बचूंगी नहीं। उस समय सबीना को शादी के कई सालों बाद पहला बच्चा होनेवाला था। मतीन की नौकरी को अभी पंद्रह दिन भी नहीं हुए थे, लेकिन वह बगैर अपने करिअर की परवाह किए सचमुच उड़कर बहन के पास पहुंचा था। और, आज वही बहन खुदा-हाफिज़...
मतीन खुद को रोक न सका और फफक कर रो पड़ा। रात भी बाहर रो रही थी। घड़ी की सुइयां बिना रुके-टिके टिक-टिक कर नियत गति से घूमती रहीं। सबीना भोर में एयरपोर्ट के लिए निकली तो उसने घर के खास नौकर नदीम को हिदायत दी कि नन्हें जब तक घर में रहे, उसका पूरा ख्याल रखना। लेकिन नदीम ने बताया कि भैया तो करीब एक घंटे पहले ही अपना सामान लेकर चले गए। सबीना ने पलटकर नदीम की तरफ नहीं देखा। गाढ़े रंग का चश्मा लगाया और सीधे जाकर कार में बैठ गई, एयरपोर्ट चली गई।
मतीन बंगले के बाहर एक बड़े पेड़ की छाया में खड़ा था। सबीना की कार निकल गई तो वह भी निकल गया। पहुंच गया नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास पहाड़गंज के एक गुमनाम से होटल में। न कुछ खाया, न पिया। बस बिस्तर पर लेटे-लेटे खुद को समझाने में कोशिश में लगा रहा कि ज़िंदगी है, सब चलता है। अभी तो न जाने क्या-क्या होना बाकी है। इसलिए मन को इतना कमजोर करने की रत्ती भर भी जरूरत नहीं है। लेकिन सबीना की बातों ने उसके अकेलेपन के अहसास को बेहद नाजुक मोड़ तक, ब्रेक डाउन तक पहुंचा दिया था। यह एक ऐसा अहसास था जो पराए मुल्क में रहते हुए पहली बार उसके जेहन में आया था। थेम्स नदी के किनारे बैठे हुए उसे भोर का उगता सूरज भी पराया लगता था। यहां तक कि कांव-कांव करते कौए भी उसे अंग्रेजी बोलते दिख रहे थे। ऐसा लगा था कि इन कौओं और अपने भारत के कौओं की प्रजाति अलहदा है। जारी...

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