Thursday 5 April, 2007

तौबा करो दलाली की राजनीति से

संसदीय राजनीति में जाति की अपरिहार्यता-3
उत्तर प्रदेश में सवर्ण जातियों की राजनीतिक ताकत अब चुक गई है। मायावती ही उनके बचे-खुचे रसूख को बचाने का जरिया बन गई हैं। सवर्णों के बच्चे या तो अपहरण जैसे 'धंधों' से जल्दी से जल्दी पैसा बनाने के चक्कर में लगे हैं या सभ्य और काबिल हुए तो आईएएस, पीसीएस, मेडिकल, आईआईटी या आईआईएम का मंसूबा पाले हुए हैं। इसीलिए 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण इनको मिर्ची की तरह लगता है।
गांव-प्रधान देश और राज्य में राजनीति सत्ता का खेल है, सम्मान का खेल है, पहचान का युद्ध है। यहां विकास जैसे नारे नहीं चलते। विकास, भ्रष्टाचार विरोध, सस्ती बिजली-पानी, किसानों की आत्महत्या या दाम बांधों-काम दो जैसे मुद्दे आंदोलन के नारे हो सकते हैं, सत्ता में आने के नहीं। आंदोलन में जाति की सरहदें टूट जाती हैं। लेकिन राजनीति का खेल शुरू होते ही समाज के वंचित तबकों के लिए जाति निर्णायक बन जाती है क्योंकि सत्ता में उन्हें अपना एक्सटेंशन चाहिए, पहचान चाहिए, सम्मान चाहिए। यही वजह है कि माले की रैलियों में पटना का गांधी मैदान से लेकर दिल्ली का बोट क्लब तक खचाखच भर जाता है, लेकिन ये ताकत वोटों में तब्दील नहीं हो पाती।
आज जो लोग राजनीति से जाति को मिटाने की मंशा रखते हैं, उन्हें राजनीति के मौजूदा स्वरूप को ही खत्म करना होगा। दलाली की राजनीति की जगह प्रतिनिधिमूलक राजनीति को स्थापित करना होगा। ऐसी राजनीति शुरू करनी होगी जिसमें चुनने वाले के पास अपने नेता को वापस बुलाने का अधिकार भी हो। गुलाम हिंदुस्तान में 1885 में कांग्रेस की स्थापना के साथ दलाली की जो राजनीति शुरू हुई है, उसकी जगह 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम से शुरू हुई राजनीति को स्थापित करना होगा।
दिक्कत ये है कि हमारे देश में राजनीति ही नहीं, विकास का सारा तंत्र अंग्रेजों का दिया हुआ है। इस तंत्र में जनता को विकास का फल अनुदान में मिलता है, भागीदारी से नहीं। ऊपर से थोपा हुआ विकास समाज में जाति और धर्म जैसी पुरानी संरचनाओं को ही मजबूत करता है, उन्हें मिटाता नहीं। इसमें दलाली की ही राजनीति चलती है, प्रतिनिधिमूलक राजनीति नहीं।
दलाली की राजनीति के खिलाफ प्रतिनिधिमूलक राजनीति से ही इस तंत्र का चरित्र बदला जा सकता है। अभी जो राजनीति है, उसमें जाति का दबदबा बनेगा। ये एक ऐसा सच है जिसे हमें स्वीकार करना होगा। इस पर छाती पीटने से कोई फायदा नहीं है, जनता को जूते मारने की झुंझलाहट बेमानी है और जाति के रोग को हद से बढ़ने और फिर खत्म हो जाने की सोच एक फासीवादी सोच है।
वैसे, आखिर में बता दूं कि जाति व्यवस्था पर मेरा कोई राजनीति शास्त्रीय अध्ययन नहीं है। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव के एक सवर्ण किसान परिवार में जन्मा हूं जहां जाति का ज्यादा आग्रह नहीं था। खुद हरिजनों, पासियों, जुलाहों और कोल आदिवासियों के घरों में करीब दस साल गुजारे हैं। इसलिए जाति की सोच और राजनीति पर मेरा विश्लेषण अनुभवजन्य है, देखे हुए पर आधारित है। और, आप जानते ही हैं कि जो दिखता है, वही पूरा सच नहीं होता। (समाप्त)

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