Thursday 22 March, 2007

आह-हा! गाओ खुशी के गीत...

तालियां बजाओ, नाचो-गाओ। देश में गरीब घट गए हैं। आबादी में उनका अनुपात घट गया है। योजना आयोग ने मुनादी कर दी है कि साल 1993-94 में जहां देश के 36 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे जी रहे थे, वहीं साल 2003-04 में इनकी तादाद 27.5 फीसदी रह गई, यानी दस सालों के दरम्यान 8.5 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे से निकल कर ऊपर आ गए। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) ने आम हिंदुस्तानियों के तीस दिन के उपभोग का आंकड़ा जुटाने की खास पद्धति, यूनिफॉर्म रिकॉल पीरियड (यूआरपी) के आधार पर यह नतीजा निकाला है। अगर इस पद्धति को यूआरपी से बदल कर एमआरपी यानी मिक्स्ड रिकॉल पीरियड कर दिया जाए और ये पता लगाया जाए कि तीस दिन के बजाय साल भर में लोगों ने कितने जूते-चप्पल, कपड़े और साइकिलें वगैरह खरीदीं, तब तो आबादी में गरीबों का प्रतिशत 21.8 ही रह गया है यानी दस सालों में 14.2 फीसदी की शानदार कमी।
ये तो वाकई कमाल हो गया ताऊ! एनडीए से लेकर यूपीए की सरकारें अब अपनी पीठ थपथपा सकती हैं कि आर्थिक सुधार कार्यक्रम रिस-रिस कर नीचे तक पहुंच रहा है और ग्लोबलाइजेशन हिंदुस्तान के आम आदमी का भला कर रहा है, रिफॉर्म विद ए ह्यूमन फेस का नारा चरितार्थ हो गया। सोनिया गांधी कह सकती हैं कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना अभी से असर दिखाने लगी है।
लेकिन जरा गौर से देखिए कि सरकार किसको गरीबी रेखा से नीचे और ऊपर बता रही है। यूआरपी पद्धति के मुताबिक तीस दिन के दौरान गांवों में जिस व्यक्ति का कुल उपभोग 356.30 रुपए और शहरों में जिस व्यक्ति का कुल उपभोग 538.60 रुपए से कम है, वो गरीबी रेखा से नीचे है। यानी अगर मुंबई का कोई भिखारी दिन में 18 रुपए कमा लेता है तो वह गरीब नहीं है, उसकी गिनती गरीबी रेखा से नीचे की आबादी में नहीं हो सकती। इस तरह मुंबई से लेकर दिल्ली और चेन्नई के सारे भिखारी तक अब गरीबी रेखा से ऊपर आ गए हैं क्योंकि ये लोग दिन में कम से कम 20 रुपए तो कमा ही लेते हैं। गांवों में तो अब रोज 12 रुपए कमानेवाले भी गरीबों की राष्ट्रीय गिनती से गायब हो गए हैं।
यहीं एक और आंखें खोलनेवाली अध्ययन रिपोर्ट का जिक्र करना चाहूंगा, जिसका ताल्लुक सोनिया गांधी की प्रिय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना से है। इंडिया डेवलपमेंट फाउंडेशन के अध्ययन के मुताबिक आंध्र प्रदेश जैसे जिन राज्यों में ये योजना लागू हुई है, वहां महंगाई की दर सबसे ज्यादा तेजी से बढ़ी है, जबकि केरल जैसे जिन राज्यों में ये योजना अभी तक लागू नहीं हो पायी है, वहां महंगाई की दर कम रही है। यानी, गरीब को अगर खाने भर की कमाई हो जा रही है तो यह राज्य ही नहीं, पूरे देश के लिए खतरनाक है क्योंकि अगर वो भरपेट खाता है तो खाने की चीजों की मांग बढ़ जाती है और फिर इससे इन चीजों की सप्लाई कम पड़ जाती है, जिससे महंगाई की दर बढ़ जाती है।
ये है आंकड़ों का खेल और हिसाब-किताब। सरकार ने जिस तरह देश के गरीब घटा दिए हैं, उसमें कोई हर्ज नहीं। लेकिन अगर आंकड़ों का नतीजा सही है तो देश के गरीबों के खाने-पीने लायक होते ही हमारी-आपकी पैंट ढीली हो सकती है, जेब में लग सकती है सेंध। इसलिए अपनी खोल में जीनेवाले सभी ब्लॉग-बंधुओं सावधान! गरीब गरीब ही रहें तो अच्छा है। ये मेरा नहीं, सरकार की आंकड़ेबाज़ी का संदेश है।

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