Friday 23 February, 2007

जोगी लौटा देश

दो साल बाद...चली गई मत्स्यगंधा। किशोर भी चला गया। वह अपने ससुराल चली गई पागल पति के साथ घर बसाने और ये अपने घर लौट गया अपने मां-बाप के पास नई जिंदगी शुरू करने। इस तरह जो किशोर जोगी बनने निकला था, वह बीच सफर से ही वापस लौट गया। सब कुछ छोड़कर उसे पुराने रिश्तों का घूंट पीना पड़ा। वैसे, सच कहें तो उसकी जोगी बनने की चाहत का किसी विचारधारा या क्रांति से कोई लेना-देना नहीं था, वह तो बस एक जुनूनी और रोमांटिक पलायन था। संयोग से उसके दोनों हाथों की उंगलियों के पोरों पर शंख के निशान हैं और अपने यहां कहा ही गया है कि दसों चक्र राजा, दसों शंख योगी। क्रांतिकारी बनने में उत्प्रेरक का काम इस जानकारी ने भी किया कि भगत सिंह और उसके जन्म की तारीख एक ही थी।
खैर, इन दो सालों में मत्स्यगंधा के साथ क्या हुआ, ये तो पता नहीं, लेकिन किशोर को भयंकर उहापोह से गुजरना पड़ा। दुनिया, समाज, उसे बदलने की विचारधारा, अपने अंदर के संसार को बदलने का तरीका - इन सारी बातों पर लगातार उसके भीतर मंथन चलता रहा। इस मंथन से अमृत भी निकला और जहर भी। अमृत है ये ज्ञान कि हिंदुस्तान के गरीब लोगों के बीच अगर आप सेवा की सच्ची भावना से पहुंच जाएं तो वे आपका इतना ख्याल रखेंगे कि आपको अपने वजूद के फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर आपको कुछ भी नहीं आता तो बस उनकी बातों को सुनते जाइये। वे अपनी मुश्किल सवालों का हल खुद ही खोज लेंगे। आप इस निदान के निमित्त भर होंगे। आप एक प्रतीक होंगे शंकर के पत्थर की तरह, लेकिन अपनी समस्याओं के समाधान का श्रेय वो इसी मूक पत्थर को देते रहेंगे। कभी कहेंगे कि साथी जब आप मुस्कराये थे, तभी हम समझ गए थे कि आप क्या कहना चाहते हैं। कभी कहेंगे कि मीटिंग से आपका चले जाना ही हमें बता गया कि आप हम से क्या करवाना चाहते हैं। यानी, अपने वजूद की चिंता में अवसाद का शिकार होते जा रहे पढ़े-लिखे नौजवान अगर किसानों-मजदूरों के बीच सेवा की भावना से चले जाएं तो उन्हें कभी भूखों नहीं मरना पड़ेगा, उनका दुख खत्म हो जाएगा, भविष्य बन जाएगा। वैसे भी जिस देश में लाखों ढोंगी साधु खोखली बातों से आम लोगों के बल पर ऐश करते हों, वहां ईमानदार सेवकों का लालन-पालन तो हमारे गरीब-गुरबां कर ही सकते हैं। गोरख पांडे की ये पंक्तियां थोड़े में बहुत कुछ कह देती हैं कि दुख तुम्हें क्या तोड़ेगा, तुम दुख को तोड़ दो, बस अपनी आंखें औरों के सपनों से जोड़ दो। ये अलग बात है कि खुद गोरख इस पर अमल करते-करते घनघोर अवसाद में एक दिन खुदकुशी कर बैठे।
अमृत के रूप में कुछ ऐसे ज्ञानात्मक संवेदन भी मिले जो आम जिंदगी जीते हुए शायद ही मिल पाते। इन्हीं में से एक अनुभूतिजन्य ज्ञान है कि आत्महत्या इंसान ही कर सकते हैं, जानवर कभी आत्महत्या नहीं कर सकते। जो इंसान जानवरों की हालत में पहुंच गए हैं, या रहते हैं वो भी आत्महत्या नहीं कर सकते। उनके तो जेहन में दूर-दूर तक इसकी आहट तक नहीं आ सकती। किशोर को ये अहसास तब हुआ जब शहर में वह रेल पटरियों के पास एक पार्टी सिमेपैथाइजर के घर में जब-तब रहता था। इस पटरी पर कोई फाटक नहीं था। दो साल के भीतर इन पटरियों पर ट्रेन से कटकर दो लड़कों और एक महिला ने खुदकुशी की थी। लेकिन इनके किनारे दो कोढ़ी रहते थे। टाट और प्लास्टिक से उन्होंने झुग्गी नुमा घर बना लिया था। लोगों की भीख से उनका पेट चलता था। किशोर अक्सर सोचता कि जिन पटरियों पर लोग खुदकुशी कर रहे हैं, वहां ये क्यों नहीं कटकर मुक्त हो जाते। आखिर इस तरह की जिंदगी ढोते जाने का क्या मतलब है? एक दिन ये कोढ़ी जाने-कहां से एक कोढिन ले आए। कुछ महीनों बाद उसने एक बच्चे को जन्म दिया। किशोर को लगा कि इनके लिए पशुवृत्तियां ही सर्वोपरि हैं और इसीलिए इनके मन में कभी खुदकुशी का ख्याल ही नहीं आता होगा। (दूर है अभी यू-टर्न)

3 comments:

Avinash Das said...

कहानी पर टिप्‍पणी फिर कभी। लेकिन एक हिंदुस्‍तानी की डायरी के नीचे जो लिखा है, उसे देख कर अशोक चक्रधर की कविताओं की याद ताज़ा हो जाती है।

azdak said...

अगर यह कहानी यहीं और इसी तरह खत्‍म हो रही है तो मैं थोडा अप्रसन्‍न और खिन्‍न हो रहा हूं. शुरुआत में लगा आप अच्‍छे मैराथन का समां बांध रहे हैं, और फिर अचानक आप उसे 100 मीटर स्प्रिंट में बदल देते हैं. ठीक बात नहीं.

अनिल रघुराज said...

अभी तो ठीक से शुरूआत भी नहीं हुई है, अभी तो कम से कम सौ पन्ने लिखे जाने बाकी हैं।