Wednesday 28 February, 2007

शाम पर एक कविता

शाम ढलते थके सूरज ने समेटा जाल फैला सात रंगों का
चिनारों की फुनगियों पर जो उलझकर रह गई थी सोनपंखी किरन मछली
उसे पंजे में दबाकर कुतरती है एक घायल चील दोनों पंख फैलाए।
परछाइयां सिमटीं, ओझल हुई और मिट चलीं
बचपना दुबका, खांसते बूढ़े...

खामोश खपरैलों को ढंकने लगी चादर अंधेरे की।
हर तरफ वीरानगी है गजब का सुनसान
है जो आहट बस यही कि...
गूंजता रहता फिज़ा में मातमी का पारदर्शी एक धीमा स्वर
आदमी की खाल से मढ़ते मृदंगों का।

(यह कविता मुझे कागज के एक ठोंगे पर लिखी हुई मिली थी, आधी-अधूरी। जहां कमजोरी झलके, समझिएगा कि वे लाइनें मैंने लिखी हैं। कवि का नाम पता हो तो जरूर बताइएगा)

Team India! Think it again

पूरे देश पर इस समय वर्ल्ड कप का जुनून चढ़ा हुआ है। टीम इंडिया की हौसला-अफजाई लगता है राष्ट्रीय कर्तव्य बन गया है। ऐसे में देश के प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार इकोनॉमिक टाइम्स की एक पुरानी रिपोर्ट के कुछ अंश पेश कर रहा हूं। गौर फरमाइए....
....The truth is that India does not own Indian cricket. The team full of FMCG models is anything but public property. The players are employees of a private society registered as an association under Tamil Nadu’s Society Registration Act of 1860. This association, The Board of Control for Cricket in India (BCCI), is affiliated to a limited company registered in British Virgin Islands called the International Cricket Council (ICC).
The BCCI is widely regarded as the richest cricket club in the world, though humorously enough, it calls itself a non-profit organisation....
The cricket body is so private and independent that in theory the word "India" in the BCCI could be contested. The government has in the past denied private bodies the right to use words like "Indian" and "National".
It is not certain if a day would come when the BCCI would have to shed the word "India". Generations have been misled into believing that Indians own Indian cricket.
The board’s unquestionable autonomy is best expressed by its (ex) chief Jagmohan Dalmiya who have said "The BCCI is not answerable to the government of India or any other authority. It is a registered society. It is a private body with its own constitution."
The wealth of the BCCI, that has attracted non-cricketing elements (such as politicians), could also become its nemesis one day. Senior lawyer YP Trivedi says: "The government has taken over private charities, and temple trusts when a lot of money has been involved and the auditing has not be satisfactory." There is no hard evidence of the BCCI passing on its affluence to cricket lovers. The last time a one-day match was held in Mumbai’s Wankhede stadium, thousands stood in line from eight in the evening outside the ticket counter which opened at eight the next morning, sold about 5,000 tickets and shut the window. More than 80% of the 45,000 seats were reserved for politicians, officials and sponsors. With very few toilets in the stadium, many had to hold their bladders for several hours despite the handicap of being men. In fact the cheaper stands showed that many didn’t hold their bladders. Watching cricket in India is a misery that the BCCI’s immense wealth has been unable to resolve but it has certainly made cricket a very rich game in a country where all other sports languish in poverty.
http://cricket.indiatimes.com/articleshow/851406.cms

Friday 23 February, 2007

जोगी लौटा देश

दो साल बाद...चली गई मत्स्यगंधा। किशोर भी चला गया। वह अपने ससुराल चली गई पागल पति के साथ घर बसाने और ये अपने घर लौट गया अपने मां-बाप के पास नई जिंदगी शुरू करने। इस तरह जो किशोर जोगी बनने निकला था, वह बीच सफर से ही वापस लौट गया। सब कुछ छोड़कर उसे पुराने रिश्तों का घूंट पीना पड़ा। वैसे, सच कहें तो उसकी जोगी बनने की चाहत का किसी विचारधारा या क्रांति से कोई लेना-देना नहीं था, वह तो बस एक जुनूनी और रोमांटिक पलायन था। संयोग से उसके दोनों हाथों की उंगलियों के पोरों पर शंख के निशान हैं और अपने यहां कहा ही गया है कि दसों चक्र राजा, दसों शंख योगी। क्रांतिकारी बनने में उत्प्रेरक का काम इस जानकारी ने भी किया कि भगत सिंह और उसके जन्म की तारीख एक ही थी।
खैर, इन दो सालों में मत्स्यगंधा के साथ क्या हुआ, ये तो पता नहीं, लेकिन किशोर को भयंकर उहापोह से गुजरना पड़ा। दुनिया, समाज, उसे बदलने की विचारधारा, अपने अंदर के संसार को बदलने का तरीका - इन सारी बातों पर लगातार उसके भीतर मंथन चलता रहा। इस मंथन से अमृत भी निकला और जहर भी। अमृत है ये ज्ञान कि हिंदुस्तान के गरीब लोगों के बीच अगर आप सेवा की सच्ची भावना से पहुंच जाएं तो वे आपका इतना ख्याल रखेंगे कि आपको अपने वजूद के फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर आपको कुछ भी नहीं आता तो बस उनकी बातों को सुनते जाइये। वे अपनी मुश्किल सवालों का हल खुद ही खोज लेंगे। आप इस निदान के निमित्त भर होंगे। आप एक प्रतीक होंगे शंकर के पत्थर की तरह, लेकिन अपनी समस्याओं के समाधान का श्रेय वो इसी मूक पत्थर को देते रहेंगे। कभी कहेंगे कि साथी जब आप मुस्कराये थे, तभी हम समझ गए थे कि आप क्या कहना चाहते हैं। कभी कहेंगे कि मीटिंग से आपका चले जाना ही हमें बता गया कि आप हम से क्या करवाना चाहते हैं। यानी, अपने वजूद की चिंता में अवसाद का शिकार होते जा रहे पढ़े-लिखे नौजवान अगर किसानों-मजदूरों के बीच सेवा की भावना से चले जाएं तो उन्हें कभी भूखों नहीं मरना पड़ेगा, उनका दुख खत्म हो जाएगा, भविष्य बन जाएगा। वैसे भी जिस देश में लाखों ढोंगी साधु खोखली बातों से आम लोगों के बल पर ऐश करते हों, वहां ईमानदार सेवकों का लालन-पालन तो हमारे गरीब-गुरबां कर ही सकते हैं। गोरख पांडे की ये पंक्तियां थोड़े में बहुत कुछ कह देती हैं कि दुख तुम्हें क्या तोड़ेगा, तुम दुख को तोड़ दो, बस अपनी आंखें औरों के सपनों से जोड़ दो। ये अलग बात है कि खुद गोरख इस पर अमल करते-करते घनघोर अवसाद में एक दिन खुदकुशी कर बैठे।
अमृत के रूप में कुछ ऐसे ज्ञानात्मक संवेदन भी मिले जो आम जिंदगी जीते हुए शायद ही मिल पाते। इन्हीं में से एक अनुभूतिजन्य ज्ञान है कि आत्महत्या इंसान ही कर सकते हैं, जानवर कभी आत्महत्या नहीं कर सकते। जो इंसान जानवरों की हालत में पहुंच गए हैं, या रहते हैं वो भी आत्महत्या नहीं कर सकते। उनके तो जेहन में दूर-दूर तक इसकी आहट तक नहीं आ सकती। किशोर को ये अहसास तब हुआ जब शहर में वह रेल पटरियों के पास एक पार्टी सिमेपैथाइजर के घर में जब-तब रहता था। इस पटरी पर कोई फाटक नहीं था। दो साल के भीतर इन पटरियों पर ट्रेन से कटकर दो लड़कों और एक महिला ने खुदकुशी की थी। लेकिन इनके किनारे दो कोढ़ी रहते थे। टाट और प्लास्टिक से उन्होंने झुग्गी नुमा घर बना लिया था। लोगों की भीख से उनका पेट चलता था। किशोर अक्सर सोचता कि जिन पटरियों पर लोग खुदकुशी कर रहे हैं, वहां ये क्यों नहीं कटकर मुक्त हो जाते। आखिर इस तरह की जिंदगी ढोते जाने का क्या मतलब है? एक दिन ये कोढ़ी जाने-कहां से एक कोढिन ले आए। कुछ महीनों बाद उसने एक बच्चे को जन्म दिया। किशोर को लगा कि इनके लिए पशुवृत्तियां ही सर्वोपरि हैं और इसीलिए इनके मन में कभी खुदकुशी का ख्याल ही नहीं आता होगा। (दूर है अभी यू-टर्न)

Wednesday 21 February, 2007

चलता रहा सिलसिला

काश ऐसा हो जाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कैसे नहीं हुआ, इसकी भी बड़ी दिलचस्प कथा है। लेकिन आगे बढ़ने के पहले इस 'वो-उसने-उसका' कोई नाम रख लेते हैं, क्योंकि भ्रम से बचने के लिए जरूरी है कि वो मैं नहीं हूं। वैसे, सच ये भी है कि नाम और चेहरे में क्या रखा है। बस, इतना समझ लीजिए कि वो अस्सी के दशक का कोई भी ऐसा शख्स हो सकता है, जो देश से एकदम गंवई अंदाज में प्यार करता रहा हो, जिसमें जिंदगी में नया कुछ करने का जुनून रहा हो और जिसमें भर्तहरि की तरह जोगी बनने की तमन्ना रही हो। चलिए सुविधा के लिए उसका नाम रख लेते हैं - राजकिशोर
राजकिशोर का मन बल्लियों उछल रहा था। उसे लगा कि जिस मध्यवर्गीय गलाजत से निकलने के लिए वो शरीर और मन का हर मैल धो रहा था, अगर मल्लाह की वो लड़की उसकी संगिनी बन गई तो उसकी ये कोशिश कामयाब हो जाएगी। साथ ही रागात्मक संबंधों का उसका रीतापन भी मिट जाएगा। ऐसा हो गया तो वह वैज्ञानिक सोच को जड़वादियों के जबड़ों से निकालकर अपनी सामाजिक हकीकत की जमीन तक ले ही आएगा।
लेकिन मजे की बात ये रही कि पार्टी के राज्य प्रमुख राजकिशोर की शादी एक वकील की बेटी से करवाना चाहते थे। वो बराबर पार्टी साहित्य देने के बहाने उसे वकील साहब के घर भेज देते, जहां उसका स्वागत एकदम दामाद की तरह होता। इसी दरम्यान एक बैठक हुई, जिसके खत्म होने के बाद तराई के साथी के सार्वजनिक प्रस्ताव रख दिया कि क्या हमारा कोई साथी उस लड़की से शादी करने को तैयार है। किशोर ने अलग लेकर जाकर उनसे हां कर दी, जिस पर उन्होंने कहा कि मैंने तुम्हें लक्ष्य करके ही ये बात कही थी।
इसके बाद सब अपने-अपने इलाके में चले गए। लेकिन कुछ महीने बाद पता चला कि पार्टी के एक बुजुर्ग होचीमिन टाइप नेता ने राजकिशोर के प्रस्ताव पर वीटो लगा दिया। उनका तर्क था कि सामंती पृष्ठभूमि का ये छोकरा कब पार्टी छोड़कर चला जाए, इसका कोई भरोसा नहीं है और तब तो इस लड़की की जिंदगी बरबाद हो जाएगी।
किशोर इससे बेहद आहत हुआ। जिसे वो अपनी पुरानी पृष्ठभूमि से मुक्त होने की मजबूरी बनाना चाहता था, उसे ठुकरा दिया गया, उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठा दिया गया। उसे ये बात भी समझ में नहीं आई कि वकील की बेटी से शादी करना कैसे क्रांतिकारी कदम हो सकता है और गरीब मल्लाह की बेटी से शादी करने का प्रस्ताव कैसे उसकी सामंती सोच का परिचायक था। खैर, इसके बाद उसने पार्टी प्रमुख के कहने के बावजूद वकील साहब के घर जाना पूरी तरह बंद कर दिया। (वक्त है ब्रेक का)

जिंदगी का यू-टर्न

Don't be silly youngman. Now you have turned 45, behave like an adult. Let the man within you unfold himself.
जिंदगी में यू-टर्न लेना सचमुच मुश्किल होता है। पहले उसने दूसरों के लिए जीने का मिशन अपनाया, सलीका अपनाया। अब जबकि उसकी उम्र 45 साल की हो चुकी है, उसे समझ में आया कि अब अपने लिए जीना चाहिए। इसी मोड़ पर उसे जिंदगी के यू-टर्न का अहसास हुआ। असल में जब वो सोलह-सत्रह साल का था, तब यूनिवसिर्टी के कुछ छात्र गुरुओं ने उसे समझा दिया कि जिंदगी दूसरों के लिए जिओ, समाज के लिए जिओ, देश के लिए जिओ। अपने लिए तो कुत्ता भी जी लेता है, खाता-पीता है, बच्चे पैदा करता है। बात उसकी समझ में आ गई। उसने इस पर पूरी शिद्दत से अमल किया। चार साल यूनिवर्सिटी में बिताए। फिर आठ साल उसने गांवों में हरिजन, दुसाध, पासियों या आदिवासियों की बस्तियों और रेल मजदूरों के बीच में बिताए। इस दौरान उसे कई बार लगा कि दिमाग की सोई हुई चिप्स खुलती जा रही है। कई खूबसूरत अनुभूतियां हुई, अनोखे अनुभव हुए। लेकिन इस तरह नौजवानी के बेहतरीन बारह साल, वो साल जो खुद की जिंदगी को बनाने-संवारने में लगाने चाहिए थे, उसने दूसरों के लिए जीने में लगा दिए।
सपने तो खुद अपनी आंखों से देखे, लेकिन अपने लिए नहीं, एक अमूर्त सत्ता के लिए जो देश, समाज और अपनों की जिंदगी में खुशहाली ले आएगी। सपने में अतीत की सारी छवियां सजीव होती गईं। उसने घर छोड़ा तो लगा कि गौतम बुद्ध उसके साथ चल पड़े हैं। खेतों की मेड़ों पर चलते वक्त कभी उस पर कबीर की सधुक्कड़ी सवार हो जाती तो कभी भगत सिंह का खुमार। नहरों के किनारे चलते-चलते कभी उसके माथे पर गांधी का ब्रह्मचर्य चमकता (वैसे वह तभी से गांधी को आज की सारी राजनीतिक बुराइयों, दलाली की राजनीतिक संस्कृति के लिए जिम्मेदार मानता था) तो कभी विवेकानंद का ओज। गांवों में गया, शहरों की मजदूर बस्तियों में गया। पार्टी की पाठशालाओं में गया। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आते गए। वक्त तेजी से गुजरता गया।
हर जगह, हर समय, हर पल उस पर एक सुरूर छाया रहता। लेकिन कुछ साल बीतने के बाद उसे लगने लगा कि वह देवशिशु या बाल भगवान जैसा बन गया है। जिनके सुख-दुख वह बांटता था, उनके पास तो अपने लोग थे, घर परिवार था। लेकिन उसका कौन है, किसके साथ वह अपनी मानसिक उलझनों और विचारों को बांटे। उसे रागात्मक संबंधों की कमी कहीं अंदर से सालने लगी। पार्टी से बात की तो जवाब मिला कि उसके पास निजी चिंताओं और विचारों के लिए जगह नहीं है, संगठन की बात करो, आंदोलन की बात करो...ये बात मत करो कि तुम क्या सोचते हो, कैसा सोचते हो।लेकिन सोच से ही तो विचारधारा बनती है। विचारधारा कुछ नीति वाक्यों का समुच्चय़ भर नहीं होती, जिसे रट लिया जाए और उसी की रट लगाते रहा जाए। लेकिन न तो पार्टी नेताओं ने उसकी सुनी और न ही पार्टी में उसके साथ आए पुराने सहपाठियों ने।
धीरे-धीरे वह निपट अकेला होता गया। इतना अकेला कि उसे फिर वैसे सपने आने लगे जैसे उसे एमएससी फाइनल की परीक्षा में क्वांटम मैकेनिक्स का पेपर तैयार न होने पर रात के तीन बजे झपकी आने पर देखा था कि उसे कोहरे से भरी ठंडी रात में पेंग्युन चिड़ियों के एक झुंड ने अपनी पीठ पर बैठाकर उड़ाए ले जा रहा है। पेंग्युन चिड़ियां आपस में इंसानी जुबान में बात भी करती जा रही थीं। सपने से जगा तो दिलोदिमाग में इतनी ठंडक भर गई कि परीक्षा की अधूरी तैयारी का सारा तनाव छंट गया। वह शीतल निष्काम तटस्थता से भर गया कि जो होगा, सो देखा जाएगा...चंद घंटों में तो सारे साल की पढ़ाई पूरी नहीं की जा सकती। तर्क ने बताया कि पेंग्युन चिड़ियों का इस तरह उड़ना बेतुका है। लेकिन यहीं पर उसे एहसास हुआ कि स्वर्ग या जन्नत की कल्पना कहां से उपजी होगी।
वह पार्टी के साथ काम करते हुए अज्ञातवास से अम्मा-बाबूजी को गाहे-बगाहे खत लिखता रहा। उन्हें समझाता रहा कि उसका घर छोड़ना घरेलू जिम्मेदारियों से पलायन नहीं है और यह कि आज भी देश और समाज को भगत सिंह जैसों की जरूरत है। ये सभी खत घर पहुंचे, मां-बाप और भाई-बहन ने ही नहीं, कुछ संवेदनशील रिश्तेदारों ने भी इन्हें पढ़ा। उसकी महानता के चर्चे भी हुए। लेकिन गांव के कुछ बड़े-बुजुर्गों ने बात फैला दी कि वह तो सचमुच का पागल हो गया है और किसी पागलखाने में उसका ईलाज चल रहा है, तभी तो आठ साल से घर नहीं आया है।
इस दौरान मां की हालत सबसे ज्यादा खराब रही। बाप के मन को तो अपने सपनों के मर जाने से जैसे लकवा मार गया था। शुरू में कई महीने तक घर न आने और कोई खोजखबर भी न मिलने पर अम्मा-बाबूजी यूनिवर्सिटी गए तो उसके हॉस्टल के कमरे में उसका बक्सा, सूटकेस, किताबें सब चीजें जस की तस पड़ी हुई थीं। बाबूजी को लगा कि कुछ लोगों ने अगवा कर उसे मार डाला है। उन्होंने उसके कुछ छात्र गुरुओं को धमकी तक दे डाली कि वो उन्हें अपने बेटे की हत्या के लिए कोर्ट तक घसीट ले जाएंगे। बाद का हाल ये है कि मां किसी भी शहर में जाने पर चौराहों से लेकर रेलवे स्टेशनों पर भटकते या भीख मांगते नौजवान पागलों को गौर से देखती कि कहीं वो उसका दुलरुआ तो नहीं हैं। लेकिन दो साल बाद जब उसका भेजा लिफाफा घर के पते पर पहुंचा तो अम्मा-बाबूजी को तसल्ली हो गई कि बेटा जिंदा है। फिर भी उन्हें उसकी सलामती की फिक्र सताती रही। मां को जब भी खबर मिलती कि कहीं कोई गुनी साधु या फकीर आया है तो वो उसकी शरण में जा पहुंचती। पूछती कि उसका बेटा कहां और कैसा है। मां ने तमाम ज्योतिषियों तक से पूछ डाला। किसी ने बताया कि वो उत्तर दिशा में सही-सलामत है और अगले साल क्वार महीने की नवमी तक घर लौट आएगा। सभी ने उसे तरह-तरह के अनुष्ठान करने की सलाह दी, जैसे हर शनिवार को घर से दक्षिण किसी पीपल के पेड़ पर दिन डूबने के बाद जल देना या रोज किसी भिखारी को एक रुपए का सिक्का देना।
उधर उसे कभी-कभी घर की याद आती को अफसोस होता कि मां-बाप की चाहत को वह पूरा नहीं कर सका। घर से आखिरी बार जाते वक्त साइकिल के पीछे-पीछे दूर तक दौड़ता हुआ छोटा भाई दिखाई देता। उसकी आंखों में आंसू पसीज आते। लेकिन बड़े मकसद के लिए वह इन 'क्षुद्र' भावनओं को कहीं गहरे दफ्न कर देता। लेकिन 'समाज और देश' का काम करते हुए एक दिन उसे लगा कि वह तो कूप-मंडूक बनकर रह गया है। जिस दुनिया को वह बदलने के लिए निकला है, अगर उसे उस दुनिया की चाल-ढाल ही पता नहीं लग पाई तो वह क्या उसे बदलेगा! वह पार्टी और संगठन के ढांचे में बेहद घुटन महसूस करने लगा। इसी दौरान वह तराई के इलाके में पार्टी क्लास में हिस्सा लेने गया, जहां उसे मिली एक मत्स्यगंधा। मल्लाह की लड़की, जिसकी शादी किसी अर्द्ध-विक्षिप्त से कर दी गई थी। वो वहली बार ससुराल से लौटी तो दोबारा नहीं गई। ससुराल वाले उसे विदा कराने की जिद कर रहे थे, लेकिन वो किसी भी सूरत में जाने को तैयार नहीं थी। पार्टी के स्थानीय नेता ने उससे बात की तो उसने ससुराल जाने से साफ इनकार कर दिया। उन्होंने पूछा कि तब तुम करोगी क्या। उसने तपाक से उसकी तरफ देखकर जवाब दिया - मैं ये इलाका छोड़कर साथी के साथ जाऊंगी और इनके साथ पार्टी का काम करूंगी। वह अचानक चौंक पड़ा, लेकिन मन ही मन में लड्डू फूटने लगे कि काश ऐसा हो जाता। (अभी जारी है बयान)

Thursday 1 February, 2007

मेरा सपना

लंबे अरसे से एक निर्वासित सी जिंदगी जी रहा हूं। सपना है कि अपने जैसों के लिए रामचरित मानस जैसी कोई रचना लिख सकूं।